Category: चाँद शुक्ला हादियाबादी
हमने बना के रक्खी है तन्हाइयों के साथ ख़ुश हैं हम अपनी ज़ात की परछाइयों के साथ हमदम बिछड़ रहा है तू भटकेगा देखना दिल में बसाया था तुझे …
हम खिलौनों की ख़ातिर तरसते रहे चुटकियों-से ही अक्सर बहलते रहे चार- सू थी हमारे बस आलूदगी अपने आँगन में गुन्चे लहकते रहे कितना खौफ़-आज़मा था ज़माने का डर …
साथ क्या लाया था मैं और साथ क्या ले जाऊँगा जिनके काम आया हूँ मैं उनकी दुआ ले जाऊँगा ज़िंदगी काटी है मैंने अपनी सहरा के करीब एक समुन्दर …
साँप की मानिंद वोह डसती रही मेरे अरमानों में जो रहती रही रोज़ जलते हैं ग़रीबों के मकान फिर यह क्यों गुमनाम सी बस्ती रही साँझ का सूरज था …
वो जब भी मिलते हैं मैं हँस के ठहर जाता हूँ उनकी आँखों के समंदर में उतर जाता हूँ ख़ुद को चुनते हुए दिन सारा गुज़र जाता है जब …
वो ख़ुराफ़ात पर उतर आया अपनी औक़ात पर उतर आया रूप में भेड़िया था इन्साँ के एकदम ज़ात पर उतर आया जिसकी नज़रों में सब बराबर थे ज़ात और …
वो एक चाँद-सा चेहरा जो मेरे ध्यान में है उसी के साये की हलचल मेरे मकान में है मैं जिसकी याद में खोया हुआ-सा रहता हूँ वो मेरी रूह …
वही लापता है जिसे था पता बताता भी कोई नहीं रास्ता नहीं अपने घर का मुझे कुछ पता अगर तुझको मालूम है तो बता बदन पे न था मेरे …
रोशनी की डगर नहीं आती उनकी सूरत नज़र नहीं आती अब अँधेरों से घिर गया हूँ मैं नहीं आती सहर नहीं आती हाय अब उम्र भर का रोना है …
रोज़ मुझको न याद आया कर सब्र मेरा न आज़माया कर रूठ जाती है नींद आँखों से मेरे ख़्वाबों में तू न आया कर भोर के भटके ऐ मुसाफ़िर …
रंगों की बौछार तो लाल गुलाल के टीके बिन अपनों के लेकिन सारे रंग ही फीके आँख का कजरा बह जाता है रोते-रोते खाली नैनों संग करे क्या गोरी …
ये कैसी दिल्लगी है दिल्लगी अच्छी नहीं लगती हमें तो आपकी यह बेरुख़ी अच्छी नहीं लगती अँधेरों से हमें क्या हम उजालों के हैं मतवाले जलाओ शम्अ हमको तीरगी …
यहाँ तो लोग बदलते हैं मौसमों की तरह कि नफ़रतें ही बरसती हैँ बारिशों की तरह महब्बतों के जनाज़े उठे यहाँ कब के ख़ुलूस टूट के बिखरा है आईनों …
मेरे हाथों की लकीरों में मोहब्बत लिख दे मेरे क़ातिब मेरी तक़दीर में रहमत लिख दे वो जो मेरा है वही रूठ गया है मुझसे उसके दिल में तू …
मेरे वजूद में बनके दिया वो जलता रहा वो इक ख़याल था रोशन ज़हन में पलता रहा बस गई काले गुलाबों की वो खुशबू रूह में हसीन याद का …
किसी के प्यार के क़ाबिल नहीं है मुहब्बत के लिए ये दिल नहीं है बड़ा ही ग़मज़दा बे आसरा है जे कुछ भी हो मगर बुज़दिल नहीं है मुहब्बत …
पराए ग़म को भी हम अपना ग़म समझते हैं मगर जो कमनज़र हैं हमको कम समझते हैं किसी की बात को सुनने का हौसला तो हो जो बोलते हैं …
नाज़बरदारियाँ नहीं होतीं हमसे मक़्क़ारियाँ नहीं होतीं दिल में जो है वही ज़बान पे है हमसे अय्यारियाँ नहीं होतीं कम न होती ज़मीं ये जन्नत से गर ये बदकारियाँ …
दो दिन का मेहमान है तेरी यादों का उसपे यह एहसान है तेरी यादों का आतीं हें तो फिर जाने का नाम नहीं यह कैसा रुझान है तेरी यादों …
दिल में अक्सर मेहमाँ बन के आता है पूछ न मुझसे क्या रिश्ता क्या नाता है मैंने उसको उसने मुझको पहन लिया क्या पहरावा यह दुनिया को भाता है …
दरमियाँ यों न फ़ासिले होते काश ऐसे भी सिलसिले होते हमने तो मुस्करा के देखा था काश वोह भी ज़रा खिले होते ज़िन्दगी तो फ़रेब देती है मौत से …
तेरी आँखों का यह दर्पन अच्छा लगता है इसमें चेहरे का अपनापन अच्छा लगता है तुंद हवाओं तूफ़ानों से जी घबराता है हल्की बारिश का भीगापन अच्छा लगता है …
तू रस्ता हमवार करेगा चल झूठे किया धरा बेकार करेगा चल झूठे तेरी करनी और कथनी में फर्क बड़ा सच का तू इज़हार करेगा चल झूठे जीने मरने की …
जब पुराने रास्तों पर से कभी गुज़रे हैं हम करता- कतरा अश्क़ बन कर आँख से टपके हैं हम वक़्त के हाथों रहे हम उम्र भर यूँ मुंतशर दर …
जब तोड़ दिया रिश्ता तेरी ज़ुल्फ़े ख़फा से बल खाए के लहराए कहीं मेरी बला से अब तक है मेरे ज़ेह्न में वो तेरा सिमटना सरका था कभी तेरा …