Category: अरुणा राय
प्यार में हम क्यों लड़ते हैं इतना बच्चों-सा जबकि बचपना छोड आए कितना पीछे अक्सर मैं छेड़ती हूँ उसे कि जाए बतियाए अपनी लालपरी से और झल्लाता-सा चीख़ता है …
पुकारने पर प्रति-उत्तर ना मिले तो बाहर नहीं भटकूँगी अब बल्कि लौटूँगी भीतर ही हृदयांधकार में बैठा जहाँ जल रह होगा तू वहीं तेरी मद्धिम आँच में बैठ गहूँगी …
तुम्हारी चाहना के तट पर छलक रहा समय है यह इसमें बहो और इसे बहने दो अपने भीतर गहने दो अपने अवगुंठनों को यह उघार डालेगा तुम्हें पोंछ डालेगा …
पूछती हूँ मैं… …क्या होता है प्यार तो कहता है वो कि जो तू कहती है कि तू आइना है मेरा और जो मैं कहता हूँ कि आँखें है …
जो मिरा इक महबूब है । मत पूछिए वो क्या खूब है / आँखें उसकी काली हँसी, दो डग चले बस डूब है / पकड उसकी सख्त है । …
अभी चलेगा , धूल-धुएँ के गुबार,… और भीड़-भरी सड़क, के शोर-शराबे के बीच जब चार हथेलियाँ मिलीं और दो जोड़ी आँखें चमकीं तो पेड़ के पीछे से छुपकर झाँकता …
ज़िन्दा इंसान हूँ मैं सोहबत चाहिए तुम्हारी मुकम्मल लाश नहीं हूँ कि शब्दों के फूल चढ़ाते चली जाओ…।
चुप हो तुम तो हवाएं चुप हैं खामोशी की चील काटती है चक्कर दाएं… बाएं लगाती हूं आवाज… पर फर्क नहीं पड़ता बदहवासी पैठती जाती है भीतर…
चौराहे पर फिसलती हूँ उठती हूँ तड़फड़ाकर गर्द झाड़ती हूँ कोई देख तो नहीं रहा फिर घबराहट क्यों या अभी उठी नहीं या मेरा कुछ छूट गया उस जगह …
ओह क्या है यह मेरे पहलू में यह कैसी आग जलती रहती है हर बखत जिसमें मेरा हृदय तपता रहता है वह अग्नि है तो राख क्यों नहीं कर …
मेरी सारी दिशाओं को अपने मृदु हास्य में बांध कहां गुम हो गया है खुद कि कैसा आततायी है रे तू तुझसे अच्छा तो सितारा है वह दूर है …
कुछ तो है हमारे बीच कि हमारी निगाहें मिलती हैं और दिशाओं में आग लग जाती है कुछ तो है कि हमारे संवादों पर निगाह रखते हैं रंगे लोग …
कि जीवन अभी चलेगा … धूल-धुएं के गुबार और भीडभरी सडक के शोर-शराबे के बीच जब चार हथेलियां मिलीं और दो जोड़ी आंखें चमकीं तो पेड़ के पीछे से …
माउस को … पर ले जाकर क्लिक करती हूं ….. याहू मैसेंजर का बक्सा कौंधता हुआ आ जाता है उसी तरह पर जो नहीं आते वे हैं शब्द हाय …
जिस समय मैं उसे अपना आईना बता रही थी दरक रहा था वह उसी वक़्त टुकड़ों में बिखर जाने को बेताब सा हालाँकि उसके ज़र्रे-ज़र्रे में मेरी ही रंगो-आब …
ग़ुलामों की ज़ुबान नही होती सपने नही होते इश्क तो दूर जीने की बात नही होती मैं कैसे भूल जाऊँ अपनी ग़ुलामी कि अपना ख़ुदा होना कभी भूलता नहीं …
सोचती हूं अगली बार उसे देख लूंगी ठीक से निरख-परख लूंगी जान लूंगी पूरी तरह समझ लूंगी पर सामने आने पर निकल जाता है वक्त देखते-देखते कि देख ही …
ओ मेरी रोशनी की टिमटिम बूँद खोई सी धडकन मेरी कहाँ हो तुम कि यह चाँद, पेड मौसम में बची हल्की-सी खुनक इस बारे में कोई मदद नहीं कर …
चन्दन की दो डालियाँ जब टकराईं तो पैदा हुई अग्नि और लगी फैलने चहुँओर ख़ुशबू तो एक ही थी दोनों की सो उसने चाहा कि रोके इस आग को …
एक खालीपन है जो परेशान करता है रात दिन यह उसके होने की खुशी से रौशन खालीपन नहीं है जिसमें मैं हवा सी हल्की हो भागती-दौड़ती उसे भरती रह …
चलते – चलते हाथ बढ़ाए हमने तो वो उलझे और छूट गए और छोड़ गए उलझन अब एक अकेले से वह सुलझे कैसे …
मेरी निगाहों को ही पहनो कभी जानो कि इन सबसे वजनी वस्त्रों को पहनना कितना सल्लज बनाता है तुम्हें कि कितनी मारक होती है लज्जा कि इससे बचने की …
किसी एक पल शुरू होते हो तुम निगाह या ध्वनि या एक शब्द से अगले पल अंत हो जाता है उसका पर उसकी त्रासदियां अनंत होती जाती हैं..
उदासी और हम आजू-बाजू बैठे थे ज्यादातर चुप कभी झटके से कुछ पूछते कि लगे नहीं कि उदासी है कि जैसे टोपी गिरी तो मैंने हंसते पूछा- अरे टोप …
ठिठोली करती स्मृतियों के मध्य कहाँ रखूँ अपनी उदासी का धारदार हीरा