Category: नंद भारद्वाज
बड़े भाई अक्सर मिलने पर अफ़सोस करते हैं : इससे तो अच्छा था तू यह न होकर वह होता ऐसे और इस तरह सध जाते सारे काम फलाँ की तरह …
मैं जो एक दिन तुम्हारी अधखिली मुस्कान पर रीझा, अपनों की जीवारी और जान की खातिर तुम्हारी आँखों में वह उमड़ता आवेग – मैं रीझा तुम्हारी उजली उड़ान पर …
एक उम्मीद की तरह धारण करती है जिसे मां अपनी कोख में अपनी चिन्ताओं से दूर रखना चाहती है बच्चे की भोली नींद सहमी संज्ञाओं और अनाम आशंकाओं में …
बीत गये बरसों के साथ अक्सर उसके बुलावों की याद आती है याद आता है उसका भीगा हुआ आँचल जो बादलों की तरह छाया रहता था कड़ी धूप में …
चिलचिलाती धूप के उस पार फैला दीखता है जो चिलकता दरिया वह होता नहीं दर-हकीकत कहीं – जो कुछ बचा रहता है हमारी दीठ में उसी को सहेजने की …
एक अनजान शहर में उदास बीबी और अबोध बच्चों के साथ बिताते हुए ये ये एकाकी दिन मुझे हरवक़्त कुरेदता रहता है उनका वह भीतरी संताप : पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक भरे-पूरे …
एक बरती हुई दिनचर्या अब छूट गई है आँख से बाहर उतर रही है धीरे-धीरे आसमान से गर्द दूर तक दिखने लगा है रेत का विस्तार उड़ान की तैयारी …
बाहर से आने वाले आघात का उलट कर कोई उत्तर नहीं दे पाता पेड़ वह चल कर जा नहीं जा सकता किसी निरापद जगह की आड़ में जड़ें डूबी …
बरसों बाद किसी बदले हुए मौसम की कोख से आती गंध और अंतस की गहराई में बजती धीमी दस्तक के बुलावों पर जब भी खोलता हूँ अपने भीतर के …
अबूझ और अछूते सवालों में अनजाने हाथ डालना बच्चे की आदत होती है, पहले वह अनुमान नहीं पाता बला का अन्त और थाह लेने उतरता चला जाता है अंधेरी …
एक अनचीते हर्ष और उछाह में तुम इंतज़ार करती हो घर की मेड़ी चढ़ चारों ओर आगे खुलते रास्ते पर अटकी – सी रहती अबोली दीठ पहचाने पदचिन्हों की …
आज फिर आई तुम्हारी याद तुम फिर याद में आई- आकर कौंध गई चारों तरफ़ समूचे ताल में ! रात भर होती रही बारिश रह-रह कर हुमकता रहा आसमान तुम्हारे …
तुम्हारे साथ बीते समय की स्मृतियों को जीते कुछ इस तरह बिलमा रहता हूँ अपने आप में, जिस तरह दरख्त अपने पूरे आकार और अदीठ जड़ों के सहारे बना …
तुम यकीन करोगी – तुम्हारे साथ एक उम्र जी लेने की कितनी अनमोल सौगातें रही हैं मेरे पास: सुनहरी रेत के धोरों पर उगती भोर लहलहाती फसलों पर रिमझिम …
एक अवयव टूट कर बिखर गया है कहीं भीतर लहूलुहान सा हो गया है मेरा अन्तः करण पीड़ा व्यक्त होने की सीमा तक, आकर ठहर गई है। कुछ देर …
अभी नया नया ही आया हूँ इस गली मोहल्ले में कम ही लोगों से हो पाई है दुआ-सलाम, अक्सर बन्द ही तो रहते हैं घरों के दरवाज़े, उदास चेहरों …
जैसे अपने ही पाँवों की आवा-जाही से अनजान यह भीतर तक आता घर का रास्ता – किसी के लौटने का इंतज़ार करता हो बरसों-बरस ! हमीं ने बनाया था जिसे …
तुम्हारे सपनों में बरसता धारो–धार प्यासी धरती का काला मेघ होता उन उर्वर हलकों से लौट कर आता रेतीले टीबों के अध–बीच तुम्हारी जागती इच्छाओं में सपने सवाँरता अब …
बालू रेत की भीगी तहों में एक बार जब बन जाते हैं उगने के आसार वह उठ खड़ी होती है काल के अन्तहीन विस्तार में, रोप कर देख लो …
तुम मेरे होने का आधार आधी सामथ्र्य आधी निबलाई जीवन का आधार सार— तुम पसरी सुकोमल माटी खुले ताल में उमगती कच्ची दूब सी चौफेर वृक्षों पर खिलती हरियाली …
जब उलट-पलट गई हो सारी कायनात हवा के शोर में डूबी भयातुर चिड़ियों की चहकार कौन जाने कितने पेड़ बच रहे होंगे कितने परिन्दे रहे होंगे सलामत कितनी झाड़ियाँ …
आइए – इस प्राचीन पर्वत-श्रृंखला के पार जितनी दूर भी आ सकें आप रेतीले धोरों में बिखरी बस्तियों के बीच जहाँ घर में एक घड़ा पानी ही उसकी पूंजी …
जिस वक्त में यहाँ होता हूं आपकी आँख में कहीं और भी तो जी रहा होता हूं किसी की स्मृतियों में शेष शायद वहीं से आती है मुझमें ऊर्जा …
इतना करार तो बचा ही रहता है हर वक़्त हाथी की देह में कि अपनी पीठ पर सवार महावत की मनमानियों को उसके अंकुश समेत उतार दे अपनी पीठ …
इतने वहशी और बर्बर कैसे हो उठते हैं आख़िर आदमी के हाथ कैसे मार लेते हैं अपने भीतर का आदमी ? हाथ – जो गिरते को सहारा देते हैं, हाथ …