Category: जयंत परमार
जब भी तुझको पढ़ता हूँ लफ़्ज़-लफ़्ज़ से गोया आसमाँ खिला देखूँ एक-एक मिसरे में कायनात का साया फैलता हुआ देखूँ!
पुराने वक़्त में लिखा जाता था– पत्तों पर भोज पत्र पर ताड़ पत्र पर पेड़ के सीने पर पत्थर पर पशु के चमड़े पर ताँबे पर चारों वेद भी …
पल भर में लहू की एक नद्दी में गिरा था हथेलियों के बल मुश्किल से अभी-अभी उठा- माथे और कनपटियों से अब भी ख़ून टपकता है हाथ लटकता है …
अभी-अभी थे उसके स्तन नीली ब्रा के रेशमी कैन्वस पर रौशन नाभी की तारीक गली में सब्ज़ घास पर चढ़ती ख़्वाहिश की च्यूँटी जुनूँ के नक़्शे पा पिस्ताँ तक जाते हुए …
मेज़ के ख़ानों में टेबल पर रैक पे, अलमारी में और बुकशेल्फ़ पे कब से ढूँढ़ रहा हूँ नई-पुरानी किताबों के औराक़े-जुनूँ में खद्दर के कुर्ते की फटी-फटी जेबों …
बेसुतूँ आसमान है मेरा सिर्फ़ वहम-ओ-गुमान है मेरा एक दिन मैं भी जगमगाऊँगा इक सितारे पे ध्यान है मेरा यूँ तो कुछ भी नहीं मेरे बस में और सारा …
कौन उसे रो लेता था मेरा दुख तो तन्हा था शाम ढली तो तन्हा पेड़ किसको सदाएँ देता था हाथ हिलाती थी खिड़की शाम का आख़िरी तारा था काँपते …
हवा का झोंका पुकारता है किसे दरीचा पुकारता है मैं क़ैद कब तक रहूँगा आख़िर शजर का साया पुकारता है पुरानी यादें समेट लेना गुज़रता लम्हा पुकारता है लो …
परिन्दा जब भी कोई चीख़ता है ख़ामोशी का समुंदर टूटता है अभी तक आँख की खिड़की खुली है कोई कमरे के अंदर जागता है चमकती धूप का बेरंग टुकड़ा …
पौ फटी धूप का दरिया निकला रास्ता आँख झपकता निकला ज़िस्म की क़ैद से साया निकला उम्र भर जागने वाला निकला नींद की बस्ती में पिछली शब में फिर …
फूल की पत्ती-पत्ती पर अपनी उँगलियों से लिखता हूँ तेरा नाम! फूल तो झड़ जाता है लेकिन तेरा नाम ख़ुशबू बनकर फैल रहा है चारों ओर!
मेरी बच्ची प्यारी-सी नन्हीं बच्ची शार्पनर से सुलगाती है इक पेंसिल सफ़ेद काग़ज़ के आकाश में रौशनी फैलने लगती है– पेड़ को लेकर उड़ती काली चिड़िया मोर की आँखो …
बेंच पे बैठी ब्ल्यू जींस वाली लड़की पेंसिल छीलती है और उसमें से फूटता है इक काला फूल पेंसिल लिखती है काले-काले अक्षर कोरे काग़ज़ पर जैसे काली तितलियाँ! …
तुंद शोले मेरी लह्द में थे तौफ़-ओ-तावीज़ भी सनद में थे दिल ने चाहा छुपा लूँ आँखों में वे सितारे जो दिल की हद में थे इन जुनूँ सरपसंद …
राग दरबारी में शाम सायाफिगन काले बादल पे तारा शफ़क़ सुर्ख़-रू गुनगुनाती रदीफ़ों के जाम-ओ-सुबू महफ़िले-शब चराग़ाँ फ़क़ीरों की धुन ये ज़मीं-आसमाँ काफ़ियों के नुजूम मेरा बर्गे-दिल सो रहा …
लफ़्ज़ की खूँटी पर लटकता था एक मिसरा तुड़ा-मुड़ा-सा था मेरे अंदर था ख़ौफ़ ख़ेमाज़न दफ़ कोई दश्त में बजाता था लहर ग़ायब थी लहर के अदर मैं किनारे …