Category: अरुण कुमार नागपाल
धूप की आशा में कुर्सी पर वैठ रोज़ मैं सूरज़ की प्रतीक्षा करता हूँ ’गुड मार्निंग ’कहने के लिए सर्द ऋतु में सूरज़ मेरी बूढ़ी हडिड्यों को गर्माता है …
जीवन से लड़ते-लड़ते बीत चुके हैं कई रोज़, महीने साल थक हार गया हूँ मैं ख़त्म हो चुके हैं मेरे तरकश के सारे तीर टूट चुकी है तलवार अपना …
जूतों और डिब्बों में छिप कर जीने का चलन तलुवों में रहने और डर-डर कर जीने की संस्कृति कॉक्रोच का जीना भी कोई जीना है उसका तो केवल अस्तित्व …
एक सौ चीख़ो को अपने अंदर दबाए रखने और उनका गला घोंटते रहने से कहीं अच्छा है एक बार पूरी ताक़त से चीख़ लेना ऐसी चीख़ मारना जो दिल …
आम आदमी को गिराया जा सकता है पत्थर मार कर कच्चे आम की तरह पर भूलना यह भी नहीं चाहिए कि आम आदमी यदि चाहे तो पूँजीपति के पेट …
अरुण जी, यहाँ दो के बीच में इस टैक्स्ट को मिटा कर इसकी जगह अपनी कविता जोड़ें।
क्यारियों को पानी देते बाबू जी चूल्हा चौका सँभालती माँ शर्ट का बटन टाँकती पत्नी टीचर के लिए लाल गुलाब ले जा रही नन्ही-सी लड़की कॉलबेल बजाता पोस्टमैन कुछ …
मेरी कविताओं की डायरी में बंद पड़े हैं कुछ पुराने फूल कालेज के ज़माने के एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ है मेरी कविताओं की डायरी पिंडोरा बाक्स है एक ख़ज़ाना है …
फ़ुर्सत के लम्हों में एलबम देखते हुए लगा जैसे तस्वीरें बोल रहीं हों मुझसे कुछ उस दिन पहली बार लगा मुझे जैसे तस्वीरें सचमुच बोलती हैं
मिट्टी के दीयों की चमक उन्हें जलता हुआ देखना एक ख़ुशनुमा अहसास देता है दीयों में छुपी हैं शुभकामनाएँ इंगित करते हैं उज्जवल, सुनहले भविष्य की ओर अन्धकार को …
बिखरे रहते हैं सब के सब पन्ने इधर-उधर उड़ते यहाँ-वहाँ गिरते बेतरतीब ऐसा कोई नहीं जो काग़ज़ों को एक -एक करके उठाता हरेक वर्क़ सँभालता और सँवर जाती ज़िन्दगी …
मेरे भीतर हैं कई द्वीप कई गुफ़ाएँ हैं अजंता-एलोरा-सी कई पक्षी हैं जो चहचहा रहे हैं ख़ूँख़ार जानवर भी हैं कई हिमखण्ड हैं कई सागर,कई दरिया,सदानीरा नदियाँ हैं बहुत-से …
नीली आँखें भरा पूरा गदराया जिस्म उफ़नता यौवन अछूता रूप शीतल तरुणाई इन सब से मिला कर बनी हो तुम ऐ मेरी पिघलती कविता
समन्दर किनारे पहुँच जब मैं इसमें से उठती लहरों को देखता हूँ तो इसकी शान्ति को अपने हृदय में उतार लेना चाहता हूँ और सीपियों को उठा-उठाकर सोचता हूँ …
आज रंज होता है पेड़ को बुलंदियों पर बेलौस खड़ा तो है पर लगता है बेमानी हैं सब के माने हाँ,यह था महत्त्वाकांक्षी पर इसने कभी न चाहा था …
मुझसे कहीं अधिक व्यथित है यह गुलमोहर तुम्हारे वियोग में अपने अनुभव से मैंने यह जाना है कि अक्सर निशि के तमस में सिसकते हुए यह तलाशा करता है …
बीहड़ों को पार करती हवा की तरह साँय-साँय करती चीड़ के पेड़ों को चीरती पुलों को लाँघती सुरंगों में से गुज़रती हमेशा मोबाइल अपने ट्रैक पर दौड़ती हुई लगातार …
लॉन में ख़ुश्बू बिखराते सफ़ेद ,गुलाबी, पीले फूल लगते हैं उसे अपने बच्चों की तरह पर उसी लॉन में घास पर बैठे हुए माली के बच्चे चुभते हैं उसे …
सहज नहीं हूँ मैं बहुत कुछ घट रहा है मेरे भीतर बन रहा है बहुत कुछ तो कुछ टूट भी रहा है जैसे चल रही है कोई वर्कशॉप बराबर …