Tag: पर्यावरण पर कविता
वे जमीन लुट रहे है घर से बेदखल कर रहे है कह रहे है ——- इसका नाम ही विकास वे जंगल और पहाड़ों से खदेड़ रहे है वैसे बन्जार …
अब तो बच्चा छोटा है खिलेोना और मीठाई से ही बहल रहा है और तुम निःचिन्त होकर काम कर पा रहे हो पर कल जब वह बड़ा होगा स्कुल …
जब भी कोई पेड़ पर कुल्हाड़ी चलाता है उसका दर्द मेरे हृदय को लगता है पेड़ की पत्ता जैसे कविता की पन्ने और कविता की पन्ने जैसे बच्चे की …
रो रहे है पहाड़ रो रही है नदी रो रहे है झारखंड के जीवन्त झरने अब झारखंड की पहाड़ों पर पेड़ घना नहीं है नदि-नालों मे पानी नहीं है …
तुमने सोचा है कभी ……. (कविता) हे मानव ! तुमने सोचा है कभी , तुम पूर्णत: हो नारी पर निर्भर . जन्म से मृत्यु तक तुम्हारे जीवन- सञ्चालन में …
टूटा आस अब कहाँ बुझाएं प्यास ? बिखर गया आशियाना. छूट गया आवास . पूछ रहा बेज़ुबान. अए मनुष्य महान ? उठने की लालसा ने , तेरा कितना मानसिक …
माँ सी मौसी आगबबूला जाने कब से, अंगारों में लड़खड़ा गई आवारा बच्चे ना माने पकड़ें गरदन करें शरारत उसको काटें लहू भरे गालों पर चाटें बही वेदना की …