देखो सखि !फिर आया सावन,
चलो ना मायका हो आए।
बहुत की सेवा हमने सास ससुर की
अब मम्मी पापा को देख आए।
देखो सखि! फिर आया सावन,
चलो ना मायका हो आए।
बहुत झुलाया हमने अपने बच्चों को बाहो का झुला,
अब मम्मी पापा के बाहो मे झुल आए।
देखो सखि! फिर आया सावन,
चलो ना मायका हो आए।
बहुत नखरे उठाया हमने,
अपने सास के बेटे की।
अब अपने माँ के बेटे की,
भी नखरे उठा आए।
देखो सखि!फिर आया सावन,
चलो ना मायका हो आए।
पुरा ग्यारह महीना किया हमने,
दूसरों की जी हजुरी,
अब थोड़ा आराम फरमाऐ।
देखो सखि!फिर आया सावन,
चलो ना मायका हो आए।
achhi rachana apki……………………..
शुक्रिया
बहुत खूबसूरत भाव ……बीते वक़्त की नैतिक और आपसी प्रेम सद्भाव के सामजिक मूल्यों की याद ताज़ा करा दी आपने ……..आज परिवर्तन के दौर में सब लुप्त प्रायः सा लगता है।
धन्यवाद सर।
वाह…..क्या बात है….बहुत प्यारे भाव है प्रेम और सौहार्द के…….बीते ज़माने की बातें बस यादों में या किस्सों में रह गयी हैं……..सुखद अनुभूति कराती बेहद खूबसूरत रचन…..आपसे से गुज़ारिश है जब कभी वक़्त मिले औरों की रचनाओं पर आप अपने विचार व्यक्त करें तो अच्छा लगेगा…….
शुक्रिया
सुंदर भावों से युक्त रचना.
मेरी रचनाएँ “भिखारी” और “पूनम का चाँद” भी नजर करें और अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया दें.
बहुत बहुत शक्रिया सर।
बहुत रचना भावना जी जी खुस हो गया /पर मुझे ऐसा लगता है आपको मायके में भी आराम मिलनेवाला नहीं ,पर कुछ अपनी माँ -पिताजी का सेवा भी करना चाहिए
आपने सच कहा है।मुझे मायके में भी आराम नही मिलता है।पर मैं खुद को खुदनशीब मानती हूं कि मुझे दोनो जगह के लोग मेरे कामो से खुश हो कर खोजते है। शुक्रिया सर।
ख़ूबसूरत भावों को प्रस्तुत करती रचना
Sundar abhivyakti …………