पेड़ तुम ठिगने हो गए,
इमारतें लंबी हो गईं
तेरी टहनियों की पत्तियां देखो
मुरझा कर झरती जा रही हैं।
पेड़ कब से तुम खड़े हो,
घाम बरसात,सरदी की रात हो चाहे
तुम तने ही रहे
देखते ही देखते
नभ तक तनी इमारतें हो गईं हैं।
कब कहा तुमने कि देखो मैं ठिगना हो गया हूं
डाल मेरे पात मेरे
सूखते अब जा रहे हैं,
सड़क किनारे मैं खड़ा,
खड़ा जहां वही कटा अब जा रहा हूं,
काट कर मुझी को राह बनते जा रहा हैं।
मॉल्स हों या कि सड़कें
मुझी को काटती बढ़ रही हैं
छावं मेरे मुझी को डांटें
क्यांकर मौन मैं यूं खड़ा हूं।
जंगलों को काट डाले,
अब मेरी ओर निगाहें बढ़ रही हैं,
मैं बौना हो रहा हूं,
मेरे ही सामने ये मकान जन्मते जा रहे हैं।
मैं ही हूं पीछे छूटता जा रहा हूं,
पेड़ हूं शायद पेड़ ही रहा अब तलक,
कहां जा सकता हूं,
कहीं की यात्रा नहीं किया करता,
लोग चले जाते हैं,
मैं खड़ा ही रहा,
जो अब कटता जा रहा हूं।
अच्छा व्यंग ……………अति सुंदर !
ATI SUNDAR
Sundar
बहुत बढ़िया.
sundar kataaksh….vartmaan ki prasithti pe…..