आते रहे, जाते रहे हर बरस, उत्सव ही उत्सव,
थोड़ा और कमा कर, बाद में मनाऊंगा उत्सव,
जिंदगी गुजरती गयी जादुई कागज़ कमाने में,
हर बार यही सोचा मैंने, फिर मना लूंगा उत्सव,
खुद को खाक कर दिया मैंने, अपनों के लिए,
हर चीज़ कमा ली आज मैंने, अपनों के लिए,,
पर खुद से रहा, हरदम बिलकुल बेखबर सा मैं,
जब भी जिया मैं, जिया तो सिर्फ अपनों के लिए,
पर ये क्या आज अपने ही कर गए मुझको तन्हा,
जरा सा थमा क्या मैं बुढ़ापे में, सब कर गए तन्हा,
जिनके लिए, हर ख़ुशी, हर उत्सव लुटा दिया मैंने,
बूढ़े हो गए हो तुम बाबा, वो अपने ही कर गए तन्हा,
तन्हा बैठ कर सोचता हूँ थोड़ा अपने लिए भी जी लेता,
कभी निकाल वक़्त, खुद के लिए भी थोड़ा सा जी लेता,
गुजरे पलो को वक्त कभी, मुड़ने नहीं देगा अब, ऐ “मनी”
होता ना कोई गम, जिंदगी मैं ख़ुशी का उत्सव मना लेता,
मनिंदर सिंह “मनी”
Very nice Mani ji….very true…
thank you so much anu ji…………………………
Bahut khubsurat rachana Mani ji.
thank you meena ji……………..
bahut badhiya maniji…….
thank you so much sir…………………
nice………..बहुत खूबसूरत ………………..!!
thank you sir…………..
Be had khubsurat…………… …
thank you so so much sir………………..
You have touched upon a very important aspect of human life and thoughts.
thank you so much sir………………