” मेहबूब”
प्यार कर या शिकयत करू,
ऐ मेरे मेहबूब तू ही बता
मोहबत करू या मैं नफरत करू,
गर करू मैं शिकयत तो तोहीन है यह,और खामोस रही तो दुनिया देती है ताने,किस मोड़ पे तू छोर गया है न घर का पता है,न तू है मेरी मंज़िल,
तू ही बता तुझे किस नाम से पुकारू ,मेहबूब होने का हक़ तू खो सा दिया है,पर दिल की ये चाहत है तुझको में मेहबूब का नाम दू,
मन मेरा मेरे ही दिल से क्यू हर पल रहता है उलझता ,दिल को मेरी तेरी शिकयत गवारा नहीं है ,पर मेरा मन तेरी तारीफ सुनना न चाहे,दोनों की उलझन में,मैं खो सी गयी ही,मेरी इस उलझन को आके मिटा दे,
ऐ मेरे महबूब तू ही बता बेवफा का नाम देदू या मोहबत करू तुझसे,अगर मिले फुर्सत तो आके बताना,न थी मोहबत, या थी तेरी मजबूरी मुझसे दूर जाना,
ऐ मेरे मेहबूब शिकयत तेरी मैं कर नहीं सकती,जहा भी रहे तू आबाद रहे,है गुज़ारिश है मुझे मेरा आका से भर दे तेरा दामन खुशियो से|||
सर गुस्ताखी माफ़…..अपने लिखा बढ़िया है पर टंकण की खामिया है…………
बहुत खूब………………..मणि जी की बातों पर गौर करें.