नज़र को चीरता जाता है मंज़र
बला का खेल खेले है समन्दर
मुझे अब मार डालेगा यक़ीनन
लगा है हाथ फिर क़ातिल के खंजर
है मक़सद एक सबका उसको पाना
मिल मस्जिद में या मंदिर में जाकर
पलक झपकें तो जीवन बीत जाये
ये मेला चार दिन रहता है अक्सर
नवाज़िश है तिरी मुझ पर तभी तो
मिरे मालिक खड़ा हूँ आज तनकर
बहुत ही सुंदर रचना.
लाजवाब……….
लाजबाब……………………..
Really fantastic