एक समय हम सभ्य नहीं थे
फिर भी ढँकते ये तन पत्तियों और जानवरों की खालों से.
लिपिबद्ध एक भाषा न होने के बावजूद
टूटी-फूटी बोलियों और इशारों में ही सही
समझते थे हम दूसरों की आँखों की भाषा
उनकी बातों तकलीफों को बिल्कुल सही-सही…
रहते थे तत्पर हमारे दोनों हाथ
किसी के सुख-दुःख और हेर-गैर में वक्त-बेवक्त…
किताबें-स्कूल और सीखने-सिखाने के
कोई साधन न होने के बावजूद
जानते थे हम अनुभूति, अपनापन और कृतज्ञता की परिभाषाएँ…
आज हम सभ्य हैं
किन्तु हम तन नहीं ढँकते
आज एक दूसरे की मदद करना तो दूर
काटते हैं एक-दूसरे के जड़
दूसरों की सुखों से घटता है हमारी खुशी का ग्राफ
और खुशगवार हो जाता है हमारे मौसम का मिजाज
पड़ोसी को विपत्तियों में घिरा देखकर…
सीखने-सिखाने के तमाम साधनों के बावजूद
हम नहीं जानते आज
सदाचार, नैतिकता और भाईचारे का अर्थ…
आज हमारा हृदय दुःखी नहीं होता दूसरों की दुःखों-तकलीफों से
न ही पिघलता है हमारा दिल प्रेम स्नेह की ऊष्मा से…
आज लगे हैं हम सुलझाने में अपने जीवन का गणित
जिसमें हो अपने हिस्से में सिर्फ लाभ ही लाभ…
डॉ. विवेक कुमार
तेली पाड़ा मार्ग, दुमका-814 101
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित।
उम्दा………………………..
बहुत बहुत धन्यवाद आपकी इस सुन्दर प्रतिक्रिया के लिए सुरेन्द्र नाथ जी।
बहुत सही विश्लेषण……बेहद खूबसूरत…………
आप की सुंदर बेबाक प्रतिक्रिया के लिए धऩ्यवाद
सुन्दर रचना ………. विवेक जी ।
Well said …………..
आप की सुंदर प्रतिक्रिया के लिए धऩ्यवाद Kajalsoni जी.
आप की सुंदर प्रतिक्रिया के लिए धऩ्यवाद Shishir “Madhukar”.जी
जीवन के गणित का बहुत खूबसूरती से हल समझाने का कार्य किया है आपने …..अति सुन्दर डॉ विवेक !!
आप की सुंदर बेबाक प्रतिक्रिया के लिए धऩ्यवाद निवातियाँ डी. के जी.