एक बहुत पुरानी लेकिन अज़ीज क़ाफियामय नज़्म-
212 212 212 212
**मुझे आज मुझको मना लेने दे**
मुझको बिछड़े हुए मुझसे मुद्दत हुई,
आज सीने से खुद को लगा देने दे,
ख्वाब अब भी मेरी आंख में कैद हैं,
मेरी नींदों को मुझको मना लेने दे l
आंख दरिया रही एक मुद्दत तलक़,
एक मुद्दत से लब पर रही सिसकियां,
तेरी यादों में अब तक बहुत रो चुका,
तू मुझे आज बस मुस्कुरा लेने दे l
मैने मांगा है कब कुछ वफ़ा का सिला,
मैंने कब तुझसे जख्मों के मरहम लिये,
तू सुने ना सुने तेरी मर्जी है ये,
हाले-दिल आज मुझको सुना लेने दे l
उम्र खोयी बहुत आरजू में तेरी,
खुद तमाशा भी खुद को बनाया यहां,
अब बहुत गिर चुका मैं तेरी राह में,
तू मुझे आज मुझको उठा लेने दे l
तुझको जाना है जा मैंने रोका कहां,
ज़िन्दगी मेरी रोई अलग बात है,
पर बहुत रो चुकी मेरी उम्र-ए-रवां,
अहले-धड़कन को अब मुस्कुरा लेने दे ll
@Copyright.
-Er Anand Sagar Pandey
बहुत उम्दा …………।।
Umda………….. Hamesha ki tarah
Lovely write Anand ……
रूठने और मानाने का अलग ही अंदाज़ नज़र आया . अछि कविता आनंद जी
Good…………..
बहुत खुबसूरत रचना………………आनंद जी ।
बहुत खुबसूरत आदरणीय आनंद जी। पढ़कर मजा आ गया