है सब तेरा
कहाँ कुछ मेरा
करूं मैं हरदम
मेरा मेरा
कुछ पलों का
है यह डेरा
जीवन तो है
बस इक फेरा
माटी का है उपकार
जो जीवन जी भर
हमने खेला
कभी हंसाया
कभी रुलाया
भागता गया
ज़िन्दगी का रेला
खुलते ही आँख
हुआ सब मेरा
जब मूँद ली पलकें
फिर कहाँ कुछ मेरा
बुना जीवन इक
जाल है तेरा
हमें तो बस
रंगों ने घेरा
पालें हैं भ्रम
कैसे कैसे
न जाना
रचाया खेल यह तेरा
है अति सुंदर
पर है सपना
जब टूटे तब
कहाँ कुछ अपना
फिर
किऊँ मैं सोचूं
तेरा मेरा
जीवन भ्रम है
है जोगी वाला फेरा
नहीं कुछ मेरा
है सब तेरा
फिर काहे का
मेरा मेरा
हाहाहा…ये मेरा तेरा से ही तो जीवन चल रहा…जिस दिन ख़तम हुआ यह फेरा…दुनिया को भी अंत ने घेरा……भ्रम का बहुत ही खूबसूरत जाल बुना आपने…….
ब्बबू जी ,,आपने सही कहा तेरे मेरे ने ही दुनिआ को बाँध रखा है , पर कभी ईनसान इन बन्धनों से मुक्ति चाहने लगता है शायद , परिस्थितियों पर निर्भर करता है
जीवन सत्य से ओतप्रोत रचना
शिशिर जी बहुत २ धन्यावाद
सत्यता को उकेरती बेहतरीन रचना……………………………
विजय जी बहुत २ आभार