बदरा फटि फटि जात हैं कुटिया बहि बहि जाय ।
जल जन-जन समात हैं जन जल उबरि न पाय ।
ढहत पुलिया ढहत राह मरि रहे लोग बाग़ ।
बरखा थमे यही चाह अलापें यही राग ।
बिन बरखा के राज में जब जब सूखा होय ।
खेतिहर भूख से मरैं खेती नाही होय ।
बरखा होय त बाढ़ से खेत सब डूबि जाय ।
ठौर ठिकाना छिन रहा खेती कैसे भाय ।
विजय कुमार सिंह
vijaykumarsinghblog.wordpress.com
बहुत ही सही आंकलन किया है….बारिश का…नहीं होती तो मुसीबत…ज्यादा हो तो मुसीबत…. सही कहते हैं अति हर चीज़ की बुरी….बहुत खूबसूरत………
आपकी बहुमूल्य प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से आभार.
आज कल जो बारिश के कारण फसले, जन जीवन तहस नहस हो गया है उसको बड़े अच्छे भावो में उकेरा आपने बहुत खूब……………….
आपकी बहुमूल्य प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत धन्यवाद.
बहुत ही सुंदर विजय . . ………….. ।
आपकी बहुमूल्य प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत धन्यवाद.
विजय जी………..i am very very sorry
गलती से……. जी…. छुट गया ।
मानसून असंतुलन हमारे देश में एक विडम्बना है जिसका असर समाज का एक बड़ा वर्ग झेलता है आपने इस विषय पर प्रकाश डाला है और वह भी बड़ी कुशलता से ।
सराहना और आपके अनमोल वचनों के लिए ह्रदय से आभार.
बहुत अच्छे विजय. अति हर चीज़ की बुरी होती है
सराहना के लिए ह्रदय से आभार.
प्राकृतिक असंतुलन से उतपन्न विषमताओ पर बेहतरीन प्रकाश डाला है आपने…..अतिसुन्दर विजय !!
सराहना के लिए ह्रदय से आभार.
Bahut sahi farmaya hai aapne .
Sir…
और इस प्राकृतिक असंतुलन का कारण भी हम इंसान ही है।।।
बहुत ही सुन्दर रचना।।
आपके अनमोल वचनों के लिए बहुत बहुत धन्यवाद.
सूखा और बाढ़ दोनों ही इंसान की ज़िन्दगी तबाह कर देते हैं ………………… बहुत ही बढ़िया विजय जी !!
सराहना और आपके अनमोल वचनों के लिए ह्रदय से आभार.
प्रकृति विनाशलीला का अद्भूत ढंग से पिरोया है , विजय जी आपने
सराहना के लिए ह्रदय से धन्यवाद.