कभी भी बेधड़क हो बेवक्त तन्हाईया मेरे सामने आती थी ,
भरी महफ़िल दिल रुआँसा, आंखे नम सी कर जाती थी,,
कहने को बहुत कुछ था, पर डरता था हर लम्हा, कोई मेरे,
ख्वाबो का, अहसासों का जज्बातो का उपहास ना उड़ा दे,,
बेहिसाब शिकार हुआ दुनिया की शतरंज सी चालो का,
नादाँ दिल टूट कर भी था सोचता कोई हाथ मेरी तरफ बढ़ा दे,,
बहुत हुआ अब टूटना बिखरना फिर खुद को समेटना,
पत्थर सा खुद को कर अकेले जीना सीख लिया था मैंने,,
गुजर होने लगी जिंदगी, सिर्फ वक्त को गुजारने के लिए,
खुशिया लिए आ रहे, कागज़ और कलम को देखा था मैंने,,
लिखे कुछ लफ्ज़ अच्छा लगा, फिर लिखता गया कलम पकडे,
लफ्ज़ लफ्ज़ से जुड़ने लगे कागज़ पर कविता बनते देखा था मैंने,,
फिर शुरू हुआ दोस्ती का सिलसिला आहिस्ता आहिस्ता,
टूट रही आस को उम्र भर का सहारा मिलता देखता था मैंने,,
जो भी लिखना अपना लिखना, चाहे अच्छा या बुरा, कोई पढे या ना पढे,
‘मनी” एक वादा कागज़ कलम से खुद को ख़ुशी से करते देखा मैंने
बहुत खूब मनी एकदम सही सोच अपनाये हो …इसे संभाले रखना ।
धन्यवाद निवातिया जी………………..ये सोच तो अब अंतिम पड़ाव तक साथ जाएगी
बहुत ही बढ़िया ………………………….. बेहतरीन ………………….. मनी !!
तहे दिल आभार सर्वजीत जी आपका ………………….
बहुत खूब!
हृदय की सच्चाई
आप की अच्छाई
बहुत ही उम्दा
धन्यवाद अरुण जी आपका इस सराहना के लिए
बहुत खूबसूरत…………
तहे दिल आभार सी एम् शर्मा जी…………………
लाजवाब मनी जी। आपकी चिंतन शैली अदभुत है।
bus yuhi halka fulka likh leta hu………..apko accha laga sukriya
Bahut khoobsurat…
thank you swati ji…………………..
Jayadatar logo ki yahi kahani hai
Kagaj aur kalam se hi dosti nibhani hai. Badiya……. Mani ji
ji sahi kaha aap ne har tension se mukt…………..thank you savita ji…………….