तेरे मेरे बीच में
समझ का एक ठोस पुुल है
तुम जानते हो
मैं गुस्से की गठरी हूँ
मैं जानती हूँ
तुम धैर्य के देवता हो ।
तुम जानते हो
मेरा क्रोध
समुद्र तट का रेत है
जो एक पल तो
बहुत तेज तपता है
पर जैसे हीं
तुम्हारे प्रेम और
धैर्य की लहरें
उसे छूती हैं
वो उन लहरों में घुल कर
उसकी शीतलता के संग
बह जाता है। ।
मैं जानती हूँ
तुम मेरे क्रोध को
समझते हो ।
मैं जानती हूँ
तुम्हें क्रोध नहीं आता
तुम धैर्य को जीते हो ।।
तुम्हारी वाणी
तुम्हारे मन और मस्तक के
भावों को
खुबसूरती और ईमानदारी से
दर्शाती हैं ।
तुम जानते हो
मैं क्रोध में बोलती हूँ
मैं जानती हूँ
तुम क्रोध में नहीं बोलते ।।
और…………
आज तुम्हारा धैर्य
मेरे क्रोध से हार गया ।
मैंने क्रोध में कहा
मुझे तुमसे प्रेम नहीं
तुमने धैर्य से कहा
तुम्हें भी मुझसे प्रेम नहीं ।।
और हाँ……..
तेरे मेरे बीच में
जो समझ का पुल था
उसमें आज एक
गहरे सुराख ने
आकार लिया है ।
अलका
अति सुन्दर ………..
बहुत -बहुत धन्यवाद आपका….. ……
प्रियंका बहुत सुन्दर शब्द दिए है आपने भावनाओं को . ये सत्य पर आधारित है या एक कल्पना यह तो मैं नहीं जानता लेकिन इतना अवश्य कहूँगा की धैर्यवान व्यक्ति के दिल को कभी ना दुखाने का प्रयत्न करना चाहिए और बात ख़त्म करने के लिए झुक कर माफ़ी भी मांग लेनी चाहिए. इससे पुल का सुराख भी भर जाएगा और दिल का घाव भी. प्रेम में भी वृद्धि होगी और परिपक्वता आएगी.
प्रतिक्रिया हेतु बहुत -बहुत धन्यवाद सर…. ..मैं आपकी बातों से सहमत हूँ…..
व्यवहारिक जीवन के संदर्भ में यथार्थ भावो को जीवंतता प्रदान करती अच्छी रचना…….यदि निजी जीवन में ऐसा है तो उसके लिए तालमेल बनाना आवश्यक है किसी भी मद में एक पक्षीय भाव हानिकारक सिद्ध होते है ..!!
अति सुन्दर अलका !!
प्रतिक्रिया हेतु बहुत -बहुत धन्यवाद सर…………
bahut hi badiya rachna………………………….
बहुत -बहुत धन्यवाद मनी जी……….
अलका जी अआपने अपने भाव बड़ी खूबसूरती से रखे हैं .अच्छा लिखती हैं आप . मगर किसी भी रिश्ते को निभने के लिए दोनों तरफ से लचीलापन होना ज़रूरी है .दरार छोटी भी हो उसे बड़ने न दें .और खुश रहें
प्रतिक्रिया हेतु बहुत -बहुत धन्यवाद मैम…………
बेहतरीन……………,
बहुत -बहुत धन्यवाद मैम……….
बेहद खूबसूरत रचना अलका जी ।
बहुत -बहुत धन्यवाद काजल जी………
काश कि उस सुराख में
समय के साथ कुछ
बुनियाद की मिट्टी
भर उठे
सज उठे
संयुग्मित होकर फिरसे
एक हो जाएँ दोनों पाट
धैर्य और विश्वास…
धैर्य और विश्वास….
सुख दुःख का एहसास
एक समान
एकरूप
संग छांव
संग धुप
अँगना खिले
फिर वही सोनजुही
जिसकी लताओं में
खुशबू है तुम्हारी
एक बार फिर…..
-‘अरुण’
आपकी रचना को सुखान्त तक ले जाने की कोशिश की है। सकारात्मक ऊर्जा में इतना कमाल छिपा है कि वो जीवन के स्याह पलों को इंद्रधनुष बना दे।
एक अच्छी रचना के लिए आपको हार्दिक शुभेक्षा!
सर्वप्रथम प्रतिक्रिया हेतु बहुत -बहुत धन्यवाद…….. अपनी बेहतरीन रचना के लिए बधाई स्वीकार करें… आप बहुत अच्छा लिखते हैं।
अलका जी अव्वल तो आपकी शानदार रचना के लिए बधाई स्वीकार करें। बताना चाहूँगा आपकी रचना एक अतुकांत रचना है जिसमें सार्थक बिम्बों के समुचित प्रयोग से आपने भावों की सम्प्रेषणीयता को बखूबी निभाया है। इस हेतु आपको पुनः बधाई। एक पाठकीय दृष्टिकोण से मेरे कुछ सुझाव हैं जिससे रचना और भी निखर जायेगी। यदि आप को उचित लगे तो विचार करियेगा।
किसी भी कविता में चाहें वह अतुकांत ही क्यूँ न हो किसी शब्द या वाक्य को एक ही अर्थ में बार-बार रखना पुनरुक्ति दोष कहलाता है। रचनाकार को भरसक इससे बचने का प्रयास करना चाहिए।
‘तुम जानते हो’ ‘मैं जानती हूँ’ इन वाक्यों का बार बार प्रयोग कविता की सुंदरता को प्रभावित कर रहा है जबकि इन्हें बार बार लिखने की कोई आवश्यकता नही है एक बार प्रयुक्त होकर भी ये सभी जगहों पर अपना आशय प्रकट कर देंगे।शुभकामनाएं
बाकी सब शुभ शुभ
सर्वप्रथम प्रतिक्रिया हेतु बहुत -बहुत धन्यवाद सर…… ईमानदारी से कहूँ तो कविता कैसे लिखते हैं इसका मुझे ज्ञान नहीं बस जो मन में आता है उसे लिख देती हूँ पर आपने रचना के जिन दोषों से अवगत कराया है आगे से ध्यान रखूँगी वो गलती दोबारा न दोहराऊँ…. आशा करती हूँ आगे भी आप इसी प्रकार मार्ग दर्शन करते रहेंगे… पनु: धन्यवाद सर…….
बहुत बढ़िया अलका जी, आपने जैसा लिखा है कैसा अक्सर समाज में देखने को मिलता है, एक पक्ष कठोर तो दूसरा लचीला और गाड़ी आगे भी जाती पर सामजस्य होना भी उतना ही जरूरी है।
यथार्थपरक..बहुत सुन्दर…रचना…..
कमाल की रचना है……लाजवाब……