नदी की अभिलाषा
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पहाड़ से होता है
नदी का उद्गम
पसन्द है
निरंतर बहते रहना
सदा आगे की और
बढ़ते ही रहना
नहीं पसन्द
कहीं पर रूकना
नहीं चाहती
मरुस्थल से गुज़रना
डरती है
रेत उसको निगल न ले
नहीं मिलती
किसी तालाब से
संगम होता है
छोटी या बड़ी
किसी नदी से ही
स्वीकार कर लेती है
संगम में एक होना
मौन रहती है
मलिन होकर भी
रूठे तो
बिखर सकती है
तोड़कर अपने किनारे
मान जाने पर
फिर से बहने लगती है
किनारों की मर्यादा में
कहे न कहे
अभिलाषा होती है
हर नदी की
सागर में समाने की
भले ही फिर
नदी ‘नदी’ न रहे
सागर न मिले तो
गुपचुप धरा में समा जाएगी
पर किसी कुएँ में
नदी कभी नहीं गिरती !
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—गुमनाम कवि (हिसार)
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बेहतरीन……….लाजवाब……….
हार्दिक आभार संग सादर नमन ǃ
सुंदर • • • • • •
हार्दिक आभार संग सादर नमन ǃ