रिमझिम झिम बूंदे बारिश की
शुन्य से चन्द्र की प्रतिमा खिसकी
नभ पर कृष्ण बादल है छाया
तारामंडल के ऊपर आया
डरता नहीं डराता सबको
मेरे संग घबराता उनको
बूंदे जो टपक रही है प्यारी
परिणाम कोपले है न्यारी
बिना सीमा मे जब बर्षा होगी
चारो दिशाएं चर्चा होगी
बिरह हो तो याद बढ़ती ही जाती
दिखती चाहे प्रियतमा छुपाती
अक्स नीर न प्यास बुझाए
कर्म करे जो फल वो पाये
कभी कोई जीवन दांव लगाए
फिर भी कुछ कोपल न पाये
करुणा का स्थान नहीं फिर
कल से जुड़ा कोई ज्ञान नहीं फिर
अक्सर दिखती थी वो रोती
क्योकि आशा थी वो संजोती
रचना में तालमेल सटीक नहीं बैठ पाया है, अच्छे प्रसंग का वर्णन केवल शब्दों से अपितु उनके सही तालमेल से होता है और……..
आप मेरी गुस्ताखी माफ़ करें, जो मुझे लगा वही मैंने कहा…….मेरा और कोई मंतव्य नहीं…….
dhanyabad.. mujhe bhi kuch yisa lag raha hai ki jo mai likhna chahta tha wo ubhar kar aa nahi paaya..