तंग गलियों में उडी थी एक डोर
मांझे से लिपटा था वज़ूद उसका
एक उन्मुक्त ख्यालों से निकले थे पर उसके
जैसे किसी भक्त के सर झुकते हैं खुदा की दर पे |
वो छू रही थी आसमाँ को
इतरा रहा था कोई और |
वो भी तंग गलियों से उड़ा था साथ उसके |
एक कागज़ी लिबास का लबादा ओढ़े |
फिर भी वो था तो पतंग |
दंग थे सभी, पतंग के रंग से |
डोर की सुध भला होती किसे |
वो इतरा रहा था
अपनी बाहें छितरा रहा था |
तभी एक दूसरी डोर उस ओर को आयी
बाल बाल बची वो कट जाने से |
उसने कहा पतंग से
आसमा में उड़े हैं हम साथ-साथ
हमारे अगल बगल भी हैं सात-आठ
कोई चाहे भी तो काट न पाएँ
रखना तुम इसका ख्याल |
पतंग हो गया तंग उस डोर से
सुना न पूरी बात उसकी
बोला तुम मैली, हो कुचैली
कट भी जाओ तो मेरा क्या |
मैं तो उन्मुक्त पंछी हूँ गगन में
उड़ता ही जाऊंगा, और ऊपर |
डोर हो गयी चुप ये सुनके
क्या करती वो ताने बुनके |
कुछ छण चलती रही ये उड़ान
पतंग हिरणी की तरह कुंचाले मारता,
उपर और उपर चला जाता |
तभी एक बादलों का टुकड़ा उससे टकराया
पतंग को कुछ दिख ना पाया
और तभी दूसरे पतंग की डोर ने उसे काट खाया |
वो गिरा ऐसे ज़मीन पर की फिर कभी उड़ ना पाया |
बहुत खूब अपने अंदाज़ में बेखबर उड़ने का अंजाम-ए-बयान……
खूबसूरत भावनात्मक रचना !!
nice ………………
प्रोत्साहन के लिए आप सभी का धन्यवाद….!