हसरतें बहुत थी हमें तेरे करीब आने की , पर रुकावट बन गई है कुछ रस्में इस जमाने की
हर तरफ हमने जो रिश्तों के जाल बुन लिए, फंस चुकी मछली ये अब कभी न बाहर आने की
हमने कसम जो ली तेरा हरदम साथ निभाने की, दुश्मनी हो गई है अब हमसे तो इस ज़माने की
वक्त ने हमको ये कैसे हाल में पहुँचा दिया, हिम्मत कभी हमने जो की किस्मत को आज़माने की
कौन कहता है कि चेहरे झूठ नहीं बोलते, माहिरी है कुछ लोगों में यहाँ पर सच को भी छुपाने की
दर्द को सह सह के हमने खुद को पक्का कर लिया, अब किसी आघात से ना चोट कोई आने की
पत्थरों का क्या है उनका सीना नहीं टूटता, चाहे गिरती रहे उन पे ये धार कितने भी साफ़ पानी की
मधुकर ये कैसे मोड़ पर आ गई है जिंदगी, अब तो ताकत भी नहीं है साथ वो खुद से रूठ जाने की
शिशिर “मधुकर”
बहुत खूबसूरत रचना शिशिर जी !!
बहुत बहुत धन्यवाद निवतिया जी
बहुत ही सुन्दर कविता शिशिर जी !
मीना जी रचना पढ़ने और सराहने के लिए शुक्रिया
कौन कहता है कि चेहरे झूठ नहीं बोलते,
माहिरी है कुछ लोगों में यहाँ पर सच को भी छुपाने की
यकीनन ……………बहुत खूब ..
शुक्रिया सलीम रजा जी
आप इतनी बढ़िया कविता लिखो हो जिसका हमें अंदाज नहीं ! कहा से इतनी प्रेरणा मिलती है ये सोच रहे है अब हम! बहुत सुन्दर चित्रण कर रही है ये कविता !
बहुत ही उम्दा दर्द को समेटती हुई रचना……
बब्बू जी रचना पढ़ने और सराहने के लिए दिल से शुक्रिया