शाम को ऑफिस से घर लौटा था और उस चाय की चुस्की के मज़े ले रहा था जो रोज़ तुम अपने हाथों से बनाती थी।
चाय से कितनी प्यारी खुश्बू उठती थी। तुम्हारे गुस्से सी महकती अदरक, तुम्हारे प्यार जैसी शक्कर और जिस्म सा सांवला चाय का रंग, बस यही तो था जो सारी थकान दूर कर देता था।
मैं पलंग पर अपने पैर फैलाये चाय की चुस्की के मज़ा ले रहा था और पास ही बैठी मेरी पांच साल की बेटी एक आसमान का टुकड़ा हाथों में लिए खेल रही थी।
वो हाथों को पीछे ले जाती और आसमां के टुकड़े को अपने किसी हाथ की मुट्ठी में छुपाकर दोनों मुट्ठियाँ मेरे सामने कर देती। मैं भी उसकी मुट्ठी के कसाव और उसकी आँखों का झुकाव देखकर समझ लेता और सही मुट्ठी को छू देता।
कई बार उसने कोशिश की लेकिन हर बार मैं अपनी होशियारी से सही मुट्ठी ही पकड़ता। वो परेशान और मायूस सी हो जाती।
फिर अचानक से वो उठी और पास बैठी अपनी माँ के साथ वही खेल खेलने चली गयी। उसने फिर से उसी तरह उस टुकड़े को किसी मुट्ठी में छुपाकर हाथ आगे किये।
लेकिन इस बार उसकी माँ ने गलत हाथ को छुआ तो वो खिलखिला के हंस पड़ी।
तब शायद कहीं ये ख़याल आया…
की एक माँ अपने बच्चों से हारती है उनकी ख़ुशी के लिए और एक बाप जब कभी अपने बच्चों से जीत जाता है तो उनको मायूसी देने के लिए नहीं बल्कि ज़िंदगी में कुछ तजुर्बे देने के लिए…..
— अमिताभ ‘आलेख’
अति सुन्दर भाव. विचार ममस्पर्शी है.
तहे दिल से शुक्रिया जनाब !
धन्यवाद !
well said………….meaningful thought !!