हे गरीब, तेरी झोंपड़ी के अजब नज़ारे हैं
बरसात में सागर बनती ,खो जाते किनारे हैं
सूखी धरा कहाँ मिले , जहाँ तुझे चैन मिले
है विनती श्याम मेघ से, कोई तो मुस्कुराती रैन मिले
हो जो आंधी और तूफान, तो पवन वेग से आसमान उड़े
कुछ न बचता अंदर , सारे का सारा सामान उड़े
शरद ऋतू में शीतल पवन है तन को जलाती
बस साथ मिलता अग्नि का, जो कुछ पल साथ निभाती
ग्रीषम के दिन भी लगते जैसे काल
रात को नींद नहीं और दिन करते बेहाल
पर तू इतना खुशनसीब नहीं जो सुने तेरी कोई पुकार
कोई विरला ही होगा जिसे, तेरे से होगा कोई सरोकार
है ये अपराध, जो गरीब घर में हुआ तेरा आगमन
थोड़ा सब्र कर, मिलेगा चैन, होगा जब काल से संगम
हितेश कुमार शर्मा
गरीबों की पीड़ा को शब्द देनें के लिए साधुवाद
शुक्रिया जी