रो पड़ा फिर आसमा दर्शी
निकल पड़ी धरती की चीख
एक नारी ने त्यागा तन फिर
खो कर अपनी आबरू और धीर
हाथ उठे जब दुर्शासन के
ली न द्रोपती की सीख
त्याग कर अपने प्राण पखेरू
नारी जाति कर दी बलहीन
रो……
तू ममता की सीतल छाया
पर अगनी भी बन सकती थी
अपने आत्म सम्मान की खातिर
तू लड़ती वीर गती होती
तुझ मे तो नही था दोष
क्यो खुद को मौत सजा दे दी
तेरी ऐसी कदमो से फिर
दोषी की हो गई हैं जीत
रो…….
शर्म तो उसको आती जिसने
मानवता शर्मसार किया
मार कर अपनी अन्तरआत्मा
तेरे दामन पर वार कियी
तुझको क्यो शर्म निगाहे चुराए
जग से मुखरा फेर लिया
घ्रिणित है ये समाज जिसने
ये कारण घ्रिणा का जोड़ दिया
आज मनोबल बढ गए दोषी
यहि कारण है हो गए ढीठ
रो…….