एक पत्ता बह गया जो हवा के साथ
पेड गुमसुम रह गया तन्हा उदास.
रोने से ही खुदा मिल जायेगा यहां
कर गया बेकार सबको यह रिवाज.
हर सांस गुजरती है बस रूह से मेरी
दो लफ्ज का रह गया बाकी हिसाब.
पीते जितनी ज्यादा और भडकती है
जिस्मों मे ढल रही है कैसी शराब.
है वक्त का तकाजा आबो हवा को बदलो
खोलो दिलो की खिडकी महके नये गुलाब.
सदियों से बह रही जो बैचेन हर नदी है
मिलता नही किनारा जिसकी इसे तलाश.
हर बार बदलते हैं मौसम के यहां तेवर
खिलते नहीं हैं लेकिन मन के कभी पलास.
मुस्कान बन गई है अब दास अजनबी यूं
है वेदना मे शामिल अपनी तो हर मिठास.
शिवचरण दास