मेरी अर्थी पड़ी हुई है
मैं शीश नवाने आया हूँ।
अपने तन से बिदा माँगने
मैं नम पलकें ले आया हूँ।
तूने प्राण भरे थे मुझमें
ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था
हर साँसों में चंचलता थी
धर्म कर्म का भान नहीं था।
अंत समय की इस बेला में
कर्तव्य निभाने आया हूँ।
मेरी अर्थी पड़ी हुई है
मैं शीश नवाने आया हूँ।
जो कुछ तुझको सूझ पड़ा था
वही कर्म बस मुझसे करवाया
पाप पुण्य सब तेरे कारण
मैं जीवन में करता आया।
कैसी है अब काया मेरी
मैं यही देखने आया हूँ।
मेरी अर्थी पड़ी हुई है
मैं शीश नवाने आया हूँ।
जीवन भर तो मैंने अपनी
परछाई तक नहीं निहारी
चहूँ ओर थी तेरी महिमा
नहीं कहीं थी बात हमारी।
अब होंगी कुछ बातें मेरी
सुनने वही चला आया हूँ।
मेरी अर्थी पड़ी हुई है
मैं शीश नवाने आया हूँ।
शब्दों का श्रृंगार अधर पर
पर नयनों में था अर्थ गहन
रूप अनूप व यौवनमद था
निज चिंतन में था मस्त मगन।
लिख रक्खी जो कविता दिल में
मैं उसे चुराने आया हूँ।
मेरी अर्थी पड़ी हुई है
मैं शीश नवाने आया हूँ।
क्रोध भभक उठता था जब भी
बस शांत उसे मैं करता था
सर्प सरीखा दर्प उठा तो
मैं उसको कुचला करता था।
दर्पहीन उस शांत चित्त का
मैं दर्शन करने आया हूँ।
मेरी अर्थी पड़ी हुई है
मैं शीश नवाने आया हूँ।
कौन उसे अब काँधा देगा
यह अर्थी को ज्ञात नहीं है
भक्त नहीं है कोई इसका
जग में भी विख्यात नही है।
इस कारण ही देखो मैं ही
दो फूल चढ़ाने आया हूँ।
मेरी अर्थी पड़ी हुई है
मैं शीश नवाने आया हूँ।
तूने नैय्या मुझको दी पर
मेरे हाथों पतवार न दी
फिर तू आँधी भी ले आया
जिसको मेरी परवाह न थी।
वही नाव यह खंडित शव है
मैं जिसे देखने आया हूँ।
मेरी अर्थी पड़ी हुई है
मैं शीश नवाने आया हूँ।
अपने पदचिन्हों पर चलने
तूने ही यह पथ दिखलाया
पर बैसाखी तूने छीनी
और अपाहिज मुझे बनाया।
कैसी हालत मेरी कर दी
मैं वही देखने आया हूँ।
मेरी अर्थी पड़ी हुई है
मैं शीश नवाने आया हूँ।
अपने तन से बिदा माँगने
मैं नम पलकें ले आया हूँ।
मेरी अर्थी पड़ी हुई है
मैं शीश नवाने आया हूँ।
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महोदय कविता उत्कृष्ट है .
Many thanks for your encouraging comment.