जो अंधों में काने निकले
वो ही राह दिखाने निकले
उजली टोपी सर पर रख के
सच का गला दबाने निकले
चेहरे रोज बदलने वाले
दर्पण को झुठलाने निकले
बातें,सत्य अहिंसा की है
पर,चाकू सिरहाने निकले
जिन्हे भरा हम समझ रहे थे
वो खाली पैमाने निकले
मुश्किल में जो उन्हें पुकारा
उनके बीस बहाने निकले
कल्चर को सुलझाने वाले
रिश्तों को उलझाने निकले
नाले-पतनाले बारिश में
दरिया को धमकाने निकले
माँ की बूढ़ी आँखे बोली
आंसू भी बेगाने निकले
पी. एच. डी. कर के भी देखो
बच्चे गधे उड़ाने निकले
bahut khub, bahut badhiya.
वहा वहा क्या बात है क्या लिखा है आपने
मेरी नई रचना
प्रेमविरह
एक स्वतंत्र स्त्री बनने मैं इतनी देर क्यूँ
बहुत सुंदर गज़ल हुई है दाद क़ुबूल करे
चेहरे रोज बदलने वाले
दर्पण को झुठलाने निकले
बहुत ही बढ़िया
सादर
NICE POEM
बहुत सुन्दर रचना