ग़मों की ज़िन्दगी में तो कभी मकसद नहीं होते…
अगर जो ठान ले तो ग़म ख़ुशी सरहद नहीं होते…
दफ़न नफरत हमेशा ही हुई है वक़्त-ए-दरिया में….
मगर इस इश्क़ के हरगिज़ कभी कम कद नहीं होते….
छुपा कर रख लिया खंजर बड़े इत्मिनान से मैंने….
जुबां के अस्त्र शस्त्र भी तो कभी बेहद नहीं होते…
कभी मैं भी चला आता कदे तेरे को सुन साकी…
खुदा के नूर मेरी रूह की गर हद नहीं होते…
ज़माना लाख चाहे भी बुरा ‘चन्दर’ नहीं बनता….
महब्बत करने वाले तो कभी भी बद नहीं होते….
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/सी.एम्.शर्मा (बब्बू)
Babbu Ji kuch sujhaav hain,
Doosre sher me magar or lekin dono kaa upypg nahin jam raha hai. Lekin ke sthaan par “hargij” karke dekhiye.
teesre sher me ashtr shastr ke sthaan par “vaar” kaa upyog karke dekhiye.
Anyathaa rachnaa bahut bhadiya hai. Muhabbat me chote u ki maatraa ko bhi theek kar leejiye.
बेहद आभार आपका मधुकर जी….. ‘लेकिन’ की जगह ‘हरगिज़’ सही है….’वार’ बुरा नहीं है पर उसको ले नहीं सकता अभी क्यूंकि ‘खंजर’ पहले मिसरे में लिया है और दूसरा जिस बह्र पे लिखी है ग़ज़ल ‘वार’ फिट नहीं आता उसके साथ मुझे और लफ्ज़ सोचना पड़ेगा…देखता हूँ मिला कुछ तो…. ‘महब्बत’ ही लफ्ज़ सहीह है मधुकर जी… नोर्मल्ली मुहब्बत लिखते हैं कोई मोहब्बत भी लिख देता है पर वो गलत है…. पुनः आभार आपका….
मधुकरजी…. मुझे अभी याद नहीं है लिंक….घर में शायद लिख के रखा है कहीं…मैं आपको मेल कर दूंगा… वो उर्दू/फ़ारसी लफ़्ज़ों का है… बहुत काम का है….उसे देखियेगा…