राहों में जब भी तुम मिले यादें पुरानी आ गईं
ऐसा लगा अम्बर में ज्यों काली घटाएँ छा गईं
ये गुमां मुझ को हुआ कि तुम मेरे नज़दीक थे
हँसती हुईं छवियां तेरी दिल को मेरे तो भा गईं
दुनिया बड़ी अंजान है कुछ भी नहीं ये जानती
सांसें मेरी ये तेरी सांस की सारी सुगन्धें पा गई
मुझको समां वो याद हैं जब होंठ होंठो से मिले
गीत कितने धड़कने फिर मेरी मिलन के गा गईं
जब भी तुमने चाँद सा मुखड़ा किया मेरी तरफ़
बिजलियां तेरे हुस्न की मधुकर कयामत ढा गईं
शिशिर मधुकर
अति सुंदर…………… !
Dhanyavaad Nivatiya Ji ………………….
उम्दा….. मधुकरजी आपकी रचना मिलन की आस में प्रतिकिर्या नहीं जा रही….यहां लिख रहा…
बेहद खूबसूरत….आप भी चेक कीजियेगा…’दीद’ मुझे लगता दूसरे की नज़र से खुद को देखने का अंदाज़ है….मतलब की महबूब की नज़र हमें देखे…. बड़े बड़े शाइर को मैंने इसे इसी रूप में प्रयोग करते देखा है…. दर्शन हम उसके करें शायद उस से लिंक नहीं है…. पक्का नहीं है…मैं इस लिए शेयर कर रहा ताकि आप की जानकारी में आये तो मुझे बताईएगा….एक शेयर है इक़बाल का जो इस समय याद आ रहा है…माना की तेरी दीद के काबिल नहीं हूँ मैं….तू मेरा शौक़ देख मेरा इंतज़ार देख”
Tahe dil se shukriya Babbu ji …………..