*दर्द का दरिया निगलना है तुझे*
बह्र 2122 2122 2122 212
सुन समन्दर, दर्द का दरिया निगलना है तुझे।
खुद ब खुद तूफ़ान से लड़कर निकलना है तुझे।
झेलना है हर सितम जालिम ज़माने की अगर,
हिमशिखर सा टूटकर खुद ही पिघलना है तुझे।
क्या तेरा मजहब जहाँ में सोच कर तू देख ले,
जाति मजहब की गणित को भी बदलना है तुझे।
नाग जो भी सर उठाये दिख रहे हैं आजकल,
पैतरे से सर उन्हीं का अब कुचलना है तुझे
सीख ले लहरों से तू भी गिर के उठने का हुनर,
ठोकरों की मार से गिर के सम्हलना है तुझे।
पेट पापी जल रहा है अब भी तेरा भूख से,
झेलकर इस ताप को साँचे में ढलना है तुझे।
-‘अरुण’
बहुत ही सुन्दर रचना।
सादर आभार
Behad sundar rachnaa Arun……..
नमन है मधुकर जी
बहुत सुन्दर….. लाजवाब…… अरुण जी……
ये प्रतिक्रिया अनमोल है
धन्यवाद काजल जी
ati sundar……..arunji…..
सादर आभार सर
Atyant Sunder Rachna Arun ji, lajawab
आपको धन्यवाद
Bahut pyari rachna Arun jee , meri kuchchh rachna aapki pratixchha mein.
सादर आभार सर
बहुत उम्दा सृजन ………….सकारात्मक सोच के साथ उत्साह और प्रतिबद्धता का सुंदर समावेश ……….बहुत खूबसूरत अरुण जी …..!
कृपया ” यशोदा तेरा ललन बड़ा निराला ” और ” शब्द विवेचन- मेरा आईना- प्रेम ” पर अपने विचार साझा करे !
जी जरूर
Bahut Sundar, arunji…
सादर आभार
बेहतरीन …………खूब लिखा आपने…..
आपका आभार
इतना मान देने के लिए आप सब का तहे दिल से शुक्रिया
बहुत सुन्दर…..अरुण जी…
सादर आभार राम गोपाल सर