मैं बूढ़ा बरगद
कब जन्मा,याद नहीं
मंदिर के पास हूँ
पास एक कुंआ है
चौराहे पर खड़ा
अपनी भुजाओं को फैलाये
न जाने कब से हूँ .
कुछ पता नहीं
धुंधली सी याद है
तो लालधारी बाबा
जिसने मुझे जवान किया .
राहगीर आते
थकान पूरी करते
पानी पीकर निकल जाते.
किसी की मर्जी हुई
तो मंदिर जाते
बाबा के पैर छूते
दयालु कुछ देते
कुछ ऐसे निकाल जाते.
बाबा का आशीर्वाद लग जाता
जो बोलते वह पूरी हो जाती .
बाबा मेरे सामने स्वर्ग सिधार गये
में खड़ा देखता रहा
कुछ न कर पाया.
उसी ने सेवा – भक्ति सिखाई
जीने को बताया
सत्य और सरल मार्ग का अवलोकन कराया
भूल गये सब
बूढ़ा जो हो गया .
मेरा मूल किधर है
मेरी वास्तविकता क्या है
मैं नहीं जानता
जड़े कितनी फैली है
असली-नकली का पता ही नहीं
मैं भी नहीं जानता .
मेरे शरीर फैलते गये
कितनी ही आंधियां देखी
कितने ठंढ़ महसूस किये
बरसातें आई चली गईं.
अकेला मैं अडिग रहा
कितने धूप खाए
सूर्य का तपीश सहा
पर शितलता देने में कसर नहीं छोड़ी .
पास गांव वाले
बुजुर्ग-बच्चे
मेरे ही गोद में खेलते रहे
लेते रहे मजे
तब मैं बहुत खुश होता
राहगीर आते
धंटो बैठकर-लेटकर आराम करते
तब मैं बाबा को दिल से याद करता
लोग कहते बाबा
लालधारी आज भी जिंदा हैं.
sundar bhav se saji rachana bindeswr ji……….
मधु जी तारीफ के लिए बहुत बहुत शुक्रिया।
वाह.. इस खूबसूरत कविता के लिए मुबारक़बाद,
शलीम साहब…. तहे दिल सुक्रिया।
Behad sundar rachnaa ………
बहुत बहुत धन्यवाद शिशिर जी।
बहुत ख़ूब…………………. बहुत ही बढ़िया बिंदु जी !!
तारीफ के लिए बहुत बहुत शुक्रिया।
bahut khoobsoorat…….yathaartha ka parichay deti…..
बहुत बहुत धन्यवाद बब्बू जी।
बहुत सुन्दर..बिंदु जी|
शुक्ला जी…. तहे दिल हार्दिक अभिनंदन।
Bahut Sundar….
तहे दिल आभार अनु जी
यथार्थ के धरातल से परिचय कराती सुंदर रचना ……….बहुत खूबसूरत बिंदु जी…………
बहुत बहुत शुक्रिया निवातिया जी।