अपना नसीब खुद बनाते हैं
बड़ा ही बेदर्द
सनम उनका निकला
वो जां लुटा बैठे
वो मैय्यत में भी न आया,
इश्क अंधा होता है
वहां तक तो ठीक था
वो अंधे होकर पीछे पीछे चल पड़े
ये गजब हो गया,
कुछ दिन पहले तक
उन्हें लगता था
कहीं कोई दहशत नहीं
अब उन्हें लगता है
दहशत घुल गई है
आबो-ऐ–हवा में,
वो रास्ता भटके हैं
घर नहीं भूले
एक दिन लौट आयेंगे अपने घर
हमें यकीं है,
हम पहले भी कमैय्या थे
कमा कर खाते थे
हम आज भी कमैय्या हैं
कमा कर खाते हैं
तेरे नसीब से हमें कोई मतलब नहीं
हम अपना नसीब खुद बनाते हैं,
अरुण कान्त शुक्ला
24/9/2017
Ek se badhkar ek sher kahe hain aapne Arun ji. Waah ……….
धन्यवाद शिशिर जी |
कटाक्ष के साथ…..साकारात्मक रूप में ज़िन्दगी जीने का अंदाज़…..बेहद उम्दा………..
आ. अरुण कान्त शुक्ला जी,
सुंदर रचना के लिए बधाई,
bhut badhiya rachana hai apki…………………
आप सभी को बहुत बहुत धन्यवाद |
बेहतरीन कटाक्ष के साथ बहुत उम्दा सृजन ………….अति सुंदर अरुणकांत जी !
बहुत बढ़िया ………………………………….. अरुण जी !