हूँ आज मैं यह सोंचती
यह है मेरा प्रतिकार शायद
क्यूँ तू लज्जित आज खुद पर
है तुम पर मेरा अधिकार शायद
है आज क्यों यह हृदय विकल
क्यूँ अश्रुपूर्ण है नेत्र सज़ल
क्यूँ आज हूँ मैं “पराजिता ”
मैं थी कभी “अपराजिता “….
हूँ अकेली इस धरा पर
आज मैं यह मानती
है काँटों से पहचान मेरी
बात मैं यह जानती
कोई पथिक न साथ है
न राह का साथी कोई
है दिया बुझने लगा अब
न पास अब बाती कोई ,
चल रही हूँ मैं निरंतर
पर कदम थकते नहीं
दृष्टि से ओझल मंज़िल मेरी
पर कदम रुकते नहीं
हार कर भी जीतने का प्रयास
कर रही हूँ
अपने अंदर के आत्मबल का
मैं विकास कर रही हूँ
नहीं बनना मुझे “पराजिता ”
मैं हूँ “अपराजिता ” ,मैं हूँ
“अपराजिता “……।
सीमा “अपराजिता “
Behad umdaa rachnaa Seema…………..
नारी बल को सकरात्मक भावो से सिंचित करती सुंदर रचना !
Bahut hi sundar…
bhut sundar bhav se sji rachana seema ji……
बेहद खूबसूरत………..मैंने “हार” नाम से रचना शृंखला लिखी है…जब समय मिले पढ़ कर बताइएगा
एक अच्छी सोच को सुन्दर शब्दों से निखारा है आपने सीमा जी , अति सुन्दर
बहुत सुंदर .