शीर्षक-
जाने क्यों डरता है तू
कैसी चाहत रखता है तू
खुदा की बनायीं सबसे
नायाब जान है तू
तू मत घबरा
ऐ इंसान
कितना भोला है तू
बाबाओं के झमेला में पड़ा है तू
आस्था के गोरखधंधे को समझा ना तू
तू क्यों लुटाता अपनी कमाई दौलत
तू क्यों लुटा देता अपनों की अस्मत
तू राम में आस्था रख
आशाराम में नहीं
तू खुद के अन्दर के राम को देख
किसी ढोंगी राम-रहीम को नहीं
तू खुद अपना खुदा है
तेरा भगवान् तेरे अन्दर है
कोई रामपाल नहीं
ऐ इंसान
कितना भोला है तू
पाखंडियो के लिए जान लुटाने चला है तू
उन्हें भगवान् बनाने चला है तू
गीता ने कर्म करना
सिखलाया तुझे
कुरान ने खुदी पे भरोसा करना सिखलाया तुझे
तू रह निडर
तू बन निडर
ऐ इंसान संभल जा तू
गर अब भी नहीं संभला
खुद को गवां देगा
खुदा ना ढूंड पायेगा
इन मुल्ला- मौलवी के चक्कर में
इन बाबाओं के चक्कर मे
तू अपनों को गवायेगा
अपनों का खून बहाएगा
ऐ इंसान
ऊपर बैठा खुदा या भगवान्
तुझे माफ़ नहीं कर पायेगा
रचना में बिना नाम लिए भी आप भाव सम्प्रेषण कर सकते हैं….. बात नाम की नहीं है….बात पाखण्ड, लालच और दुराचार की है…..और हर कोई ऐसा हो…ऐसा भी नहीं है…….ये हमारी गलती है की हम जानते हुए भी ऐसे लोगों के पीछे लगते हैं…..और ऐसे लोग हमारी कमज़ोरी का…. कुछ की मजबूरी का फ़ायदा उठाते हैं…. बस….
नाम लेने में क्या हर्ज़ है
आखिर कर कोर्ट ने भी सजा दे दी है
अभिषेकजी….बात सिर्फ नाम लेने की या कोर्ट ने सजा दी उसकी नहीं हैं….भाव है हमारी आदतों की…हमारे आचरण की….जब हम नाम लेते हैं किसी की बुराई करते हैं तो सिर्फ उस एक व्यक्ति या चरित्र के ऊपर ही ध्यान होता…किस वजह से उसको सजा मिली…उसके कर्मों को हम न अपनाएं ये भूल जाते… रावण को हर वर्ष जलाया जाता है पर रावण कम हुए क्या ?….नहीं…क्यूंकि हम सिर्फ व्यक्ति पूजा या व्यक्ति की बदनामी करने तक ही सिमित हो गए…अपने आचरण में बदलाव नहीं किया….जब तक वो नहीं होता तब तक रावण कितने भी जलाओ…कितने भी बाबा या ढोंगी पकड़ो…जाग्रति जब मन से न हो तो कोई बदलाव नहीं आता है…… कुछ दिन बाद फिर वैसा ही सब चलने लगता है…..
बलात्कारी को बाबा,
कहता कौन!
जो खुदको भगवान बताए,
ऐसा को इंशान!
सुखमंगल
bhut sahi sikh hai apki kavita me…………..
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