राहे मुहब्बत में कभी तो नाम कर लिया
बना के दूरियां तुमने खुद को फिर आम कर लिया
कभी होठों से लग के जो मेरी नस नस में पहुंचा था
नहीं मिलता है मयखाने में खुद को वो जाम कर लिया
अंधेरे ढल चुके थे ज़िन्दगी भी गीत गाती थी
सुबह ने जल के सूरज में खुद को फिर शाम कर लिया
किसी को प्यार करते वक्त ग़र सब भेद मिट जाएं
मुहब्बत में समझो उसने खुद को निष्काम कर लिया
यहाँ जीवन की राहों में धूप अक्सर ही मिलती है
जहाँ छाया मिली मधुकर वहीं आराम कर लिया
शिशिर मधुकर
Very nice,, Shishir ji..”सुबह ने जल के सूरज में खुद को फिर शाम कर लिया”, Bahut sundar …
Thank yo so very much Anu ………………
बहुत अच्छी पंक्ति की प्रस्तुति
धन्यवाद बिंदु जी……..
बहुत खूबसूरत सृजन शिशिर जी.
तहे दिल से शुक्रिया मीना जी…….
बहुत उम्दा शिशिर जी …………………!!
तहे दिल से शुक्रिया निवतिया जी……..
अत्यंत सुंदर गजल.
लौट के आ जा……..लौट के आ जा……..गजल.
विजय आपकी प्रेम भरी प्रतिक्रिया के लिए दिल से शुक्रिया…….
bhut sundar kavita ………………….khoob likha apne………
Haardik aabhaar Madhu Ji ……………….
बहुत खूबसूरत…..लिखने का अंदाज़….पर मुझे थोड़ा अस्पष्ट लग रहा एक दो जगह……आशा है बुरा नहीं मानेंगे….हो सकता मैं आपकी तरह नहीं सोच पा रहा…. जो आप कह रहे लेखन में….
अंधेरे ढल चुके थे ज़िन्दगी भी गीत गाती थी
सुबह ने जल के सूरज में खुद को फिर शाम कर लिया
मुझे ऐसा लग रहा की यह विरोधाभासी हो गया…..जब ज़िन्दगी के अँधेरे खत्म हुए या शाम खत्म हुई तो ज़िदगी की सुबह हुई…गुनगुनाने लगी…. उसके बाद ऐसा क्या हुआ की सुबह ने जल के सूरज में खुद को शाम कर लिया…अस्पष्ट है….या तो पहला मिसरे का भाव आगे जाता गुनगुनाता… अगर आप प्रकीर्ति के नियम की बात कर रहे…की सुबह के बाद शाम होनी तो पहले मिसरे का भाव अलग होना चाहये था…
किसी को प्यार करते वक्त ग़र सब भेद मिट जाएं
मुहब्बत में समझो उसने खुद को निष्काम कर लिया
प्यार तो निस्वार्थ ही होता…कंडीशंस नहीं होती उसमें…. “गर” कंडीशन है….”निष्काम” मुझे लगता सही नहीं है….निष्काम वैराग की या तटस्तथा की स्थिति…एक प्रकीर्ति है….बिना किसी कंडीशंस के…बिना किसी से प्रेम…दुश्मनी के…. मोहब्बत या तो होती है या नहीं होती…..उसकी प्रकीर्ति या स्थिति मेरे हिसाब से नहीं होती ये…..हो सकता मैं अपनी बात साफ़ कर पाया…
शिशिर मधुकर
प्रिय बब्बू जी आपकी आलोचना का तहे दिल से स्वागत है. तीसरे शेर
“अंधेरे ढल चुके थे ज़िन्दगी भी गीत गाती थी
सुबह ने जल के सूरज में खुद को फिर शाम कर लिया”
को पहले दो शेर के कॉन्टीनुअशन में देखियेगा तो आप पाएंगे कि जो शिकवे शिकायत उनमें हैं वही शिकायत इस शेर में भी की जा रही है। सुबह का रूपक जिससे शिकायतें हैं उसके लिए चुना गया है. यदि इस शेर को आप केवल प्रकृति के फुल साइकिल को एक्सप्लेन करने की दृस्टि से देखेंगे तो आपका कथन सही है कि वो तो होगा ही. लेकिन यहाँ कवि प्रकृति का साइकिल नहीं अपने शिकवों की बात कर रहा है जो उसे सुबह से हैं.
“किसी को प्यार करते वक्त ग़र सब भेद मिट जाएं
मुहब्बत में समझो उसने खुद को निष्काम कर लिया”
इस शेर में मैंने प्रेम शब्द का इस्तेमाल कहीं नहीं किया है. मैं आपकी बात से सहमत हूँ कि प्रेम तो निष्काम ही होता है. अपनी समझ के अनुसार मैं प्यार, मुहब्बत और प्रेम में फर्क पाता हूँ. कान्हा से प्यार तो सारा गोकुल करता था लेकिन प्रेम राधा करती थी. प्रेम के उसी सोपान पर भक्ति मार्ग से मीरा भी पहुँच गई. शायद शुरू में जो उनका प्यार रहा होगा वो ही शनै शनै प्रेम में परिवर्तित हो गया होगा.
आशा है उपरोक्त व्याख्या से आप संतुष्ट होंगे.
मधुकरजी…. आप जो कह रहे सही होगा….एक पाठक के नाते ज़रूरी नहीं मेरी सोच वैसी हो…हाँ प्रेम और प्यार में अंतर नहीं होता है….ये मैं मानता हूँ आपका तर्क अपनी जगह सही हो सकता है….मैं आपसे बस अपने विचार सांझा कर रहा हूँ….आज कल ऐसी परिभाषाएं हैं की ‘प्यार’ को अलग मतलब से लेते हैं ‘प्रेम’ को किसी और मतलब से…. जबकि दोनों एक ही हैं….कुछ लोग प्यार शब्द से इसलिए ऐतराज़ करते…कहते की बुरा है प्रयोग में की ‘यार’ आता इसमें….कुछ दिव्यता को सिर्फ प्रेम कहते…. कहाँ से कहाँ तक हम बिगाड़ देते शब्दों की परिभाषा…समझ से परे है….’यार’ शब्द तो पंजाब के महान सूफी संत बुल्ले शाह ने अपने हर कलाम में किया है….खुदा के लिए…. और उस पवित्र आत्मा ने ‘प्यार’ शब्द का और ‘इश्क़’ शब्द का इस्तेमाल किया है….बहुत से लोग ‘इश्क़’ शब्द को गलत समझते हैं बोलने में…. अक्सर बजुर्ग कहते सुने हैं मैंने आशीर्वाद के रूप में कि भगवान् का प्यार भरा हाथ सर पे रहे…. माँ बाप का प्यार मिले…
baat app ki bhi sahi praateet hoti hai. main kuch change karne ki koshish karronga or aapse punh sampark karoonga.
बहुत ही खूबसूरत गजल……. मधुकर जी…..!!
Tahe dil se shukriya Kajal……………….